"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

|| शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव और शहीद राजगुरु को शत शत नमन ||

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"दिल से निकलेगी ना मरकर भी वतन की उल्फ़त
...मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी"

|| शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव और शहीद राजगुरु को शत शत नमन ||

23 मार्च को पूरे देश में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत को याद किया जा रहा है. इनकी शहादत को 83 साल पूरे हो चुके हैं. इतना ही नहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान भी इनकी शहादत को याद श्रद्धांजलि देता है.

भगत सिंह ने रोम-रोम में फैलायी आजादी
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देश की आजादी के इतिहास में शहीद-ए-आजम भगत सिंह एक ऐसा नाम हैं, जिनके बिना शायद आजादी की कहानी अधूरी रहती. वो सिर्फ युवाओं ही नहीं, बल्कि बुजुर्गों और बच्चों के भी आदर्श हैं. लाहौर सेंट्रल जेल में उनके द्वारा लिखी गई 400 पृष्ठ की डायरी उनके व्यक्तित्व की कहानी बयां करती है. वो लेखकों, रचनाकारों, इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों सबके लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं.
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दुनिया की रंगीन झटाओ को जिसने ठुकराया था !
स्वतन्त्रता के चरणों मे अपने आप का दाव लगाया था !
मिले देश को आजादी इसलिए वे सब दुख झेल गए !
हम जी पाएँ इस खातिर वे मौत खेल का खेल गए !!
हम जी पाएँ इस खातिर वे मौत खेल का खेल गए !!
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23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।"

फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।


फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया । एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया।

शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने हँसते-हँसते भारत की आजादी के लिए 23 मार्च 1931 को 7:23 बजे सायंकाल फाँसी का फंदा चूमा था.... इन शहीदों की पुण्यतिथि/शहादत पर प्रतिवर्ष शहीद दिवस मनाया जाता है.
हम इन भारतीय वीरों की कुर्बानी को नजर अंदाज़ नहीं कर सकते ...

देश पर अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपनी मां की ममता से ज्यादा तवज्जो भारत मां के प्रति अपने प्रेम को दी थी।

उन्हें दिल से याद कर उन्हें नमन करें और उनके जैसे जीने की कोशिश करें, उन जैसा बनने की कोशिश करें।

इन्कलाब जिन्दाबाद..!! वन्दे मातरम्..!!
जय हिन्द..!! जय भारत..!! 

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मैं, पीताम्बर शम्भू, आप सभी के समक्ष अपने लेख व विचारों को पेश करते हुए… हाल-फिलहाल के हालातों का ब्यौरा रखने की भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर पसंद आये तो जरूर पढियेगा। . . धन्यवाद…।।

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