"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

अंतर्मन का अंतर्द्वंद , या अंतर्मन की व्याकुलता !

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अंतर्मन का अंतर्द्वंद , या अंतर्मन की व्याकुलता !
अंतर्मन करता क्रंदन , या अंतर्मन की आतुरता !

अश्रुहीन अब नेत्र बने , वह पुष्प ह्रदय अब कुम्हलाया !
निस्तेज हुआ वह मुखमंडल , रहती उस पर क़ालि छाया !

तन कृ्शकाय हुआ जाता , मन विचलित हो डूब रहा !
ह्रदय विदीर्ण व्यंग वाणों से , वाणी का रस छूट रहा !

अंतर्मन अब ऐसी ब्यथा को अंतहीन सा पता है,
पाता खुद को अब लक्ष्य्हीन हो दिशाहीन घबराता है !

दिग्भ्रमित हुआ अब अंतर्मन , वह अंतर्कन में टूट रहा !
वह जूझ रहा अंतर्मन से , वह अंतर्मन से पूछ रहा !

वह पूछ रहा अंतर्मन से , तुम क्यों इतने अवसादग्रस्त ,
जब मित्रो का है साथ तुम्हें और मित्र तुम्हारे सिद्धहस्त!

मित्र सुधा हो जीवन में , तब अंतर्मन आह्लाद करे !
पुलकित हो वह नृत्य करे , न लेशमात्र अवसाद रहे !

मित्र तुम्हारे निकट खडा मैं, व्याकुल हूँ करता क्रंदन !
मित्र सुधा की बूँद पिला , अब शांत करो ये अंतर्मन. !
- दीपक चौबे

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मैं, पीताम्बर शम्भू, आप सभी के समक्ष अपने लेख व विचारों को पेश करते हुए… हाल-फिलहाल के हालातों का ब्यौरा रखने की भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर पसंद आये तो जरूर पढियेगा। . . धन्यवाद…।।

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