"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

"दु:खेष्वनुद्विग्न्मना: सुखेषु विगतस्पृह: । वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।"

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दु:खेष्वनुद्विग्न्मना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

अर्थात:- 
"दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये है, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है ।" 2 /56

सरल शब्दों में:- "जिस व्यक्ति के लिये दु:ख और सुख एक समान अवस्था है, और जो सांसारिक राग, भय और क्रोध से मुक्त है, ऐसा स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति ही सिद्ध पुरूष कहलाता है।"

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 यह प्राय सभी जानते कि जीवन में सुख और दु:ख प्रत्येक के जीवन का एक हिस्सा है। परन्तु यह बात स्पष्ट तौर पर समझने वाली है कि आज के इस आधुनिक समाज में भी कुछ ढोंगी-पाखंडी लोगों की कमी नहीं है। जहाँ समय मिला वहीं लोगों को भटकाना शुरू। माफ कीजियेगा अगर यह टिप्पणी किसी को बुरी लग रही हो, मेरा कोई उद्देश्य किसी को आहत करने का नहीं है।
 इस सांसारिक जीवन में मनुष्य कई सुख और दु:ख की प्राप्ति करता है। परन्तु वह प्रत्येक को गम्भीरता से ही लेता है, यदि कोई सुख का आगमन हो तब वह ज्यादा सोच विचार नहीं करता क्योंकि उसे वह पसन्द है। अब कौन होगा जिसे सुख पसन्द नहीं। लेकिन यदि दु:ख का आगमन होता है तब..तब क्या? तब व्यक्ति अंतरमन, दिल, धडकन, बुद्धि सभी तौर पर हिल जाता है तथा हार मान लेता है। ऐसी स्थिति में वह प्राय: सुखों को प्राप्त करने को ही दौडा-भागता रहता है। लेकिन दु:ख तो सुख के साथ जुडा ही हुआ है, वह पीछा थोडी ना छोडेगा।
इसलिये हमें चाहिये कि सुख होने पर ज्यादा उत्साहिन ना हों, और दुखी होने पर अत्याधिक गम्भीर ना हों। क्योंकि दु:ख आता है हमारे अन्दर छुपे राग, भय और क्रोध से। जितना ये तीनों बढ जाते हैं, उतना ही दुख बढ जाता है। हमारा अभ्यास राग, भय व क्रोध से ऊपर उठकर होना चाहिये। क्योंकि यदि हमने इनपर काबू पाना सीख लिया और सुख व दुख को समान रूप से देखना सीख लिया तो शायद ही हम एक स्थिर बुद्धि वाले मुनि की भांति रह सकेंगे।

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मैं, पीताम्बर शम्भू, आप सभी के समक्ष अपने लेख व विचारों को पेश करते हुए… हाल-फिलहाल के हालातों का ब्यौरा रखने की भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर पसंद आये तो जरूर पढियेगा। . . धन्यवाद…।।

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