"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥  
    भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में अर्जुन को बहुत ही सरल और सीधेसादे तरीके से परमात्मा प्राप्ति का ज्ञान दिया।  उसे ज्ञान,कर्म,सन्यास और मोक्ष के बारे में विस्तृत रूप से समझाया|उसे जीवन जीने के सभी तरीके समझाए। संसार में क्या उचित है और क्या अनुचित,इनका ज्ञान कराया। जो आज हम सबके सामने गीता के रूप में उपस्थित है। स्वयं परमात्मा के द्वारा ज्ञान मिलने के उपरांत भी क्या अर्जुन उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मुक्ति के मार्ग पर चल पडा ? मैं कहता हूँ नहीं ,बिलकुल भी नहीं। जब अर्जुन जैसा वीर-धुरंधर साक्षत भगवान से भी ज्ञान प्राप्त न कर सका तो एक सांसारिक व्यक्ति के लिए यह कैसे संभव है कि वह मात्र गीता पढकर उस ज्ञान को प्राप्त कर सके। जब कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण ने अर्जुन को सभी प्रकार से ज्ञान दे दिया और फिर महसूस किया कि अर्जुन इनमे से किसी भी मार्ग को अपनाने में हिचक महसूस कर रहा है तो अंत में थक हार कर उनको कहना ही पडा कि तुम्हारे बस में अगर ये सब करना नहीं है तो सबकुछ छोड कर मेरी शरण में आ जा|  एक आदर्श भक्त कि इस अवस्था को शरणागति कहते हैं। 

शरणागति-(Surrender to Supreme power)-
 श्रीमद्भागवत गीता के अंतिम अध्याय में योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। | गीता १८/६६। |

अर्थात्,सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को त्यागकर तू एक मुझ सर्वशक्तिमान परमेश्वर की ही शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा,तू बिलकुल भी शोक मत कर। 

 अर्जुन उस समय कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में अपने सगे सम्बन्धियों को सामने देखकर विचलित हो गया था|वह एक क्षत्रिय था और उस कधर्म था-युद्ध करना। वह अपने रिश्तेदारों को युद्ध मैदान में देखकर युद्ध करने से इंकार कर रहा था। श्री कृष्ण ने उसे उसके धर्म को याद दिलाया। अर्जुन ने अपने शंका समाधान के लिए कई प्रश्न किये जिनका श्री कृष्ण ने बड़े ही धैर्य के साथ उत्तर दिए। फिर भी अर्जुन को अंत तक कुछ भी समझ में नहीं आया। इससे ज्यादा भगवान भी कुछ नहीं कर सकते थे। न समझ में आने का एक मात्र कारण था-अपने आप को कर्ता समझना। जब श्री कृष्ण ने उसकी सब शंकाओं का समाधान कर दिया फिर भी वह दुविधा में फंसा रहा कि उस जैसे व्यक्ति के लिए कौन सा मार्ग अपनाना आवश्यक है ? इस दुविधा से उसे बाहर निकलने के लिए भगवान ने उसे अंतिम विकल्प सुझाया कि तू सब कुछ छोड़ और मेरी शरण में आ जा। जब व्यक्ति सब ओर से निराश होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाये और उसे उस दुविधा से निकलने का कोई मार्ग दिखाई नहीं दे तो शरणागति ही एक मात्र रास्ता बचता है।  
 शरणागति का अर्थ है-आप अपने द्वारा किये जा रहे समस्त प्रयास बंद कर दें और अब कुछ उस परम पिता परमेश्वर पर छोड़ दें|वही आप के लिए जो भी उचित होगा वह सब करेगा। पानी में जब कोई व्यक्ति गिर जाता है और उसे अगर तैरना नहीं आता है ;तो वह अव्यवस्थित तरीके से हाथ-पांव इधर-उधर मारता है। जिस कारण से उसका तैरना संभव नहीं हो पता और आखिर में थक कर वह डूब जाता है। अगर ऐसी स्थिति में वह तैरने का प्रयास बंद करदे तो प्राकृतिक तौर से वह पानी की सतह पर उतराता रहेगा,डूबेगा नहीं। इस प्रयास नहीं करने का नाम ही शरणागति है। 

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मैं, पीताम्बर शम्भू, आप सभी के समक्ष अपने लेख व विचारों को पेश करते हुए… हाल-फिलहाल के हालातों का ब्यौरा रखने की भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर पसंद आये तो जरूर पढियेगा। . . धन्यवाद…।।

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