श्री कृष्णा जन्माष्टमी के कारण "शिक्षक दिवस" 5 सितम्बर के बजाय 4 सितम्बर को ही पूरे भारत में मनाया गया। इस विशेष दिन को एक नए ढंग से मनाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी जी और महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने स्कूली बच्चों से संवाद किया।
यह कार्यक्रम पूर्व निर्धारित ही था और लगा भी। जहाँ मामूली सरकारी स्कूलों के बच्चे कार्यक्रम से ठीक से जुड़ नहीं पाये, वहीँ बड़े स्कूल और ख्याति प्रसिद्ध विद्यालय ही संवाद में खासतौर पर दिखाई दिए। खैर कोई बात नहीं, संवाद और सम्बोधन बेहतरीन अंदाज में थे और उनमें विद्यार्थियों को खूब मार्गदर्शन भी मिला। आम स्कूलों में भी लाइव देखा और दिखाया गया।
लेकिन इसी बीच मैंने जो खोजने का प्रयास किया, वो था एक "शिक्षक"। क्योंकि यह एक शिक्षक दिवस था, लेकिन फिर भी एक शिक्षक की कमी यहाँ नज़र आई। हम कहने को तो कह सकते है कि प्रधानमंत्री जी और राष्ट्रपति जी ने संवाद के दौरान अपने आप को एक शिक्षक के तौर पर प्रदर्शित करने का प्रयास किया।
अब "शिक्षक दिवस" नाम से ही निरूपित करता है - यह दिवस शिक्षकों को समर्पित हो। इस दिन उनका मान-सम्मान भी किया जाना चाहिए। शिक्षकों से सम्बंधित काफी मुद्दे हैं, समस्याएं है उनका निराकरण करना चाहिए और नयी सकारात्मक घोषणाएं भी की जानी चाहिए।
जैसा कि सब जानते है शिक्षकों का भविष्य भी अंधकारयुक्त हुए चला जा रहा है। चाहे वो उनकी नियुक्ति प्रक्रिया व भर्ती को लेकर हो , या उनकी परीक्षाओं को लेकर। मोदी जी शिक्षक बनने के लिए तो बच्चों को प्रेरित करते नजर आये, लेकिन शिक्षकों के "मन की बात" क्या है ये, शायद वे नहीं जान पा रहे हैं।
आज भी देश भर में ही नहीं बल्कि राजधानी दिल्ली में ही नियमित अध्यापकों की कमी है। और यहीं से शिक्षा की शुरुआत के पहले स्तम्भ ही दयनीय सामाजिक इज्जत में जीते नज़र आ रहे हैं। दिल्ली सरकार हो या मोदी सरकार सब वादों में ही सबको रख देना चाहने में लगे है। जबकि एक सरकारी शिक्षक का भविष्य एक अन्धकारयुक्त रौशनी की तरह तीव्र गति से होते चला जा है, जिसमें वो खुद अपनी परछाई भी नहीं ढूंढ पा रहा और उसके हाथों में देश का भविष्य दांव पर लगा है।
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