ऐसा लग रहा है जैसे बहुत समय हो चला है बिना लिखे, पर वास्तव में ऐसा बिलकुल नहीं है। बहुत से लेख अधूरे हैं बस वे पूरे करने बाकी हैं। और पूरे होते ही आपको वे साइट पर भी दिखाई देने लगेंगे।
आज का खास विषय है - औपचारिकताएं,
जी हाँ, आजकल जहाँ भी देखो सब औपचारिक बने घुमते नज़र आ ही जाते हैं। जिसका कारण यह है कि औपचारिकताओं की आड़ में व्यवहार कहीं खोये हुए से नज़र आते हैं। पर आज कल का समय तो ऐसा है कि यदि आपने औपचारिकताएं नहीं दिखाई तो आपको लोग असभ्य कह देने से पीछे नहीं हटेंगे। दिखावे का चलन इतना है कि न चाहते हुए भी लोग औपचारिक हैं "सॉरी, थैंक्यू, मिसयू, हाय, बाय या मुबारक हो, चलो देखते हैं, मिलते हैं, और बताओ, और सुनाओ " आदि शब्द चलन में बहुत तेज़ी से चल पड़े हैं। हर छोटी-बड़ी बात को कुछ जताने की कोशिश की जाती है। हम में भावनाओं को व्यक्त करने और समझने की समझ मर रही है। हम लगातार औपचारिक बन रहे हैं, व्यावहारिक नहीं। और इतने औपचारिक हैं की अपने माता-पिता जी तक को भी आई लव यू और थैंक्यू जैसे शब्दों के इस्तेमाल करने के चलन की परंपरा है। जिनके इस्तेमाल के बाद ऐसा लगता है कि जैसे बोलकर कुछ एहसान उतारने का प्रयास किया गया है। जबकि माता-पिता या परिवार कभी भी औपचारिक रहा ही नहीं, वह तो असीमित स्नेह, प्रेम, सहानुभूति, आदर जैसे व्यवहार के क्षेत्र के दायरे में आते हैं। रिश्तों की अहमियत गिरने लगी है। लेकिन जैसा कि हमें पता है कि इसी औपचारिकताओं के कारण आज हमारे शब्दों का दायरा सिकुड़ गया है।
जी हाँ, आजकल जहाँ भी देखो सब औपचारिक बने घुमते नज़र आ ही जाते हैं। जिसका कारण यह है कि औपचारिकताओं की आड़ में व्यवहार कहीं खोये हुए से नज़र आते हैं। पर आज कल का समय तो ऐसा है कि यदि आपने औपचारिकताएं नहीं दिखाई तो आपको लोग असभ्य कह देने से पीछे नहीं हटेंगे। दिखावे का चलन इतना है कि न चाहते हुए भी लोग औपचारिक हैं "सॉरी, थैंक्यू, मिसयू, हाय, बाय या मुबारक हो, चलो देखते हैं, मिलते हैं, और बताओ, और सुनाओ " आदि शब्द चलन में बहुत तेज़ी से चल पड़े हैं। हर छोटी-बड़ी बात को कुछ जताने की कोशिश की जाती है। हम में भावनाओं को व्यक्त करने और समझने की समझ मर रही है। हम लगातार औपचारिक बन रहे हैं, व्यावहारिक नहीं। और इतने औपचारिक हैं की अपने माता-पिता जी तक को भी आई लव यू और थैंक्यू जैसे शब्दों के इस्तेमाल करने के चलन की परंपरा है। जिनके इस्तेमाल के बाद ऐसा लगता है कि जैसे बोलकर कुछ एहसान उतारने का प्रयास किया गया है। जबकि माता-पिता या परिवार कभी भी औपचारिक रहा ही नहीं, वह तो असीमित स्नेह, प्रेम, सहानुभूति, आदर जैसे व्यवहार के क्षेत्र के दायरे में आते हैं। रिश्तों की अहमियत गिरने लगी है। लेकिन जैसा कि हमें पता है कि इसी औपचारिकताओं के कारण आज हमारे शब्दों का दायरा सिकुड़ गया है।
सॉरी तो राह चलते लोग ऐसे पलट के बोलने लगे हैं, जैसे मुँह पर कुछ फेंक के मार रहे हों। कुल मिलाकर भावात्मक रूप के पतन का दौर चल पड़ा है। यह भी समझ नहीं आता की अपनी त्रुटि को ठीक करने का प्रयास किया जा रहा है या कोई एहसान किया गया है। फिर भी हम इस चलन में राजी-ख़ुशी शरीक होते दिखते हैं। यह औपचारिकताओं की मीठी छुरी है जो घाव भी करती है और खून भी बहने नहीं देती। जिम्मेदारी-कर्तव्य-एहसास आज कल सब एहसान के तौर पर टाल दिए जाते हैं। लेकिन इसी बीच यदि आप फिर भी इनसब औपचारिकताओं को व्यव्हार ही मानते हैं, तो आप भी वही भीड़ हैं जिसमें सामाजिक दायित्वों का क़त्ल-ए-आम हो रहा है।
Post a Comment