"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

विज्ञापनों का खेल

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जहाँ, जिस तरफ भी देखो वहीं उलझन सी हर ओर नज़र आती है, चाहे वह राजनीति के विषय में हो, समाज के विषय में हो या स्वयं खेल के विषय में ही क्यों ना हो। कभी-कभी लगता है कि शायद यहाँ तो कम से कम उलझनें नहीं होंगी, लेकिन फिर बाद में पता लगता है कि वही जगह सबसे ज्यादा उलझी हुई है। 

यही आज का विषय है जिसमें मैंने प्रयास किया है "विज्ञापनों के खेल" को समाझने का। 

लगभग हम सभी मानते हैं कि भारत अभी भी अर्थव्यवस्था के मामले में शायद कुछ पीछे है, उसके लिए देसी-विदेशी मुद्राओं का प्रवाह होना जरुरी है। मोदीजी भी खूब मेकइनइंडिया को सफल करने के प्रयास करते रहते हैं।वास्तविक तौर पर सुगम और निरंतर गतिशीलता हमारी अर्थव्यवस्था में होनी जरुरी है जिसके लिए बाजारीकरण का दौर जारी है। हर तरह के उत्पादों का एक अलग बाजार और उपभोक्ता भी हैं या यूँ कहें कि हर व्यक्ति आज के समय का उपभोक्ता है, वह प्राय कुछ न कुछ खरीदता ही है। फिर भी निरंतर प्रायोगिक प्रयास, गुणवत्ता का सुधार, दूर-दराज तक पहुँच, सही बदलाव आदि कंपनियों द्वारा समय समय पर किये जाते हैं। लेकिन उदारवादी व्यवस्था कब पूंजीवादी व्यवस्था में बदल जाती है इसका अनुमान लगा पाना बेहद मुश्किल है। कोई सामान्य नागरिक या उपभोक्ता इसको नहीं पहचान पाता। 

इसी का फायदा ये आज का बाजार उठाने लगा है जो अपने लाभ के क्रम में लोगो को मानसिक रूप से उपभोक्ता बनाने का निरंतर प्रयास करता रहता है। प्रत्येक व्यक्ति आज अपने को दूसरे से आकर्षक, सुन्दर व प्रभावी दिखना चाहता है। इसी कमजोरी को अपना अस्त्र बनाकर बाजार निरंतर आगे बढ़ता गया परंतु इसमें उपभोक्ता का लाभ पक्ष दिखाई नहीं देता। कंपनियां अलग अलग सेलेब्रिटी से विज्ञापन कराकर, उन्हें बड़ी-बड़ी धनराशि लूटाने को, यूँ ही तैयार नहीं होती। इसके बाद वे सब आपसे वसूल करती हैं। क्योंकि आजकल लगभग सभी लोग सेलिब्रिटी द्वारा विज्ञापन किये जाने के बाद उत्पाद या वस्तु के प्रति बिलकुल संतुष्ट हो जाते है। यदि कुछ विज्ञापनों का उदाहरण देखें तो, बीए, एमए, पीएचडी या अफसर बनने जैसी योग्यता प्राप्त करके भी समाज में प्रतिष्ठा नहीं मिलती, लेकिन एक ख़ास तरह के पेंट यदि आप घर पर करवाएं तो आपको वे सारी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगेंगी, डाकिये भी उसको सलामी देने लगते हैं। दरअसल कंपनी एक खास उन लोगो के मस्तिष्क में ये बात बैठने का प्रयास करती है जिन लोगों ने ये ख़ास पेंट नहीं कराया है। क्योकि बिना इसके आपकी अपनी योग्यताएं व्यर्थ और फीकी दिखती हैं। 

इसी तरह एक पान-मसाला के विज्ञापन में भी दिखाया जाता है कि उसके सेवन से ही सामाजिक उत्थान के लिए अलग अलग सोच-विचार मस्तिष्क में आने लागते हैं, जैसे गरीब बच्चों के लिए कपड़ो का इंतज़ाम, माँ-बाप की सेवा आदि, इसलिए ही वे कहते हैं - स्वाद में सोच है।  क्या वे लोग अपने बच्चों में भी यही सोच विकसित नहीं करना चाहेंगे। ऐसे प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं क्योकि यदि इससे बच्चों में कुछ अच्छी बातों के विकास में मदद मिलती है तो क्यों नहीं उनको भी कम से कम एक एक पैकेट रोज़ दीजिये। 

खान-पान से लेकर पहनावे और सौंदर्य से लेकर साज सजावट हर तरह लुभावने विज्ञापनों का बोलबाला है।  ऐसे विज्ञापन भी आज मौजूद हैं जो समाज के अंदर संकीर्ण सोच और अलग मानसिकता को उत्पन्न करने मैं सक्षम हैं। हमारे देश भारत में ग्राहकों के हितों की रक्षा करने के लिए उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय इस तरह के छल, टूट-फुट, कीमत ज्यादा लेना आदि के सम्बन्ध में कारवाई करने के लिए उपभोता के हितो की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन इस तरह के चलावे और उलझनों से भरे खेल के लिए उसके पास कोई तंत्र नहीं है जो समाज में संकीर्ण सोच, गुलाम, गलत प्रचार, और गलत मानसिकता जैसी नीतियों को बढ़ावा दे रही हैं। अब न केवल उपभोक्ता मामलो के मंत्रालय को विज्ञापनों के समक्ष कोई नियम बनाने की जरुरत है अपितु बड़े-बडे सेलिब्रिटी लोगों को भी विज्ञापनों में हिस्सा थोड़ा सोच कर लेने की जरुरत है, उनका उद्देश्य सिर्फ मोटी फीस वसूलने का ही नहीं होना चाहिए।

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मैं, पीताम्बर शम्भू, आप सभी के समक्ष अपने लेख व विचारों को पेश करते हुए… हाल-फिलहाल के हालातों का ब्यौरा रखने की भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर पसंद आये तो जरूर पढियेगा। . . धन्यवाद…।।

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