बेहद सोच व चिंतन करने के पश्चात ही मैंने यह लेख लिखने का विचार किया है। यदि किसी को इससे कोई आपत्ति होती है तो कृपया मुझे क्षमा करना। जी हाँ, क्षमा पहले मांग लेने में ही बेहतरी है। जब बात परिधान की हो तो इस विषय में महिलाओं के परिधान व पहनावे की बात भी आती है। और महिलाओं के परिधान पर लेख या कोई टिप्पणी कर देना कोई अच्छी बात नहीं समझी जाती। मैं कोई महिला विरोधी नहीं हूँ ना ही ऐसा लिखने का मेरा कोई विचार है। पुरुषों की तरह ही महिलाओं को बराबरी का अधिकार है और वे भी अपनी इच्छा अनुसार ही अपने पहनावे का चयन कर सकतीं हैं। लेकिन जिस अंदाज़ में आज कल के नेता और अभिनेता बिना सोचे अभद्र टिप्पणी करदेते हैं वह तो हम आम लोग भी बेहद शर्मनाक समझते हैं। क्योकि नेता लोग बिना शर्म के कुछ भी बोलते हैं उनका क्या जाता है, बुरा तो हम आम लोगों को ही लगता है।
लेकिन यह बडी गलत बात है कि महिलाओ के गलत पहनावे, आवरण और परिधान को लेकर यदि थोडा भी नेक सुझाव दिया जाये तो उस पर प्रतिक्रिया बेहद तीव्र और प्रतिकार अनुपात से ज्यादा दिखाया जाता है मानो उनका कोई मौलिक अधिकार छीन लिया गया हो, आपातकाल घोषित हो गया हो और कड़े मीसा कानून में डालकर जेल में रख दिया गया हो। हमें इस बात का गर्व है कि हमारे यहाँ स्त्रिया परुषों से कहीं आगे हैं, चाहे खेल हो या पढाई। साथ ही भारत मेँ नारी के लिया पर्दा प्रथा नहीं है और उन्हें अपने अनुसार जीने की पूरी आजादी है। इसी कारण हम स्त्रियों को हमेशा बारम्बार नमन करते हैं।
परंतु संस्कृति के हिसाब से यदि सौंदर्य बोध का अहसास कराया जाता है तो उसकी यह तीखी प्रतिक्रिया अनुचित और नासमझी भरी है। हमारे विदेशी सैलानी तो भारत में आकर खुद भारतीय परिधान, कुर्ता पजामा, शेरवानी, सूट सलवार तथा साडी पहनने के प्रति आकर्षित होते हैं जबकि उसके लिए उनपर कोई ऐसा दबाव नहीं होता है। नर-नारी समानता हमारे समाज की एक वैज्ञानिक जरूरत है। जिस तरह परदे में हमें सौंदर्य बोध का अहसास नहीं होता, वैसे ही नग्नता में भी सौंदर्य बोध का अहसास नहीं होता। कोई भी आधुनिक और समझदार नारी अपने ड्रेसेज को समय और अवसर के हिसाब से पहनना पसंद करती हें। ऐसे में पूजा और इबादत के समय यदि पारंपरिक परिधान में हो तो इससे उस नारी के सौन्दर्य में और चार चाँद लग जाता है।
यह सब ठीक हो जाये तो एक दिक्कत ये भी है कि आधुनिक फिल्म और मीडिया जिनका मुख्य प्रतिपाद्य अश्लीलता पर टिका है और उन्हें इन सब विषयो पर घोर प्रतिक्रिया देना एक आधुनिकता सा दिखाई देता है। जबकि हाल फिलहाल की कुछ फिल्में खुद बेहद आपत्तिजनक रहती हैं। अब ऐसे कलाकार सिर्फ कहानी की मांग व वास्तविक लगने की कहते कहते ऐसे आपत्तिपूर्ण पहनावे या नग्न दृश्य को समर्थन दें देते हैं तो उसको हम वास्तविक समाज का दर्शन नहीं कह सकते। अगर आपको लगता है कि कह सकते हैं तो शायद मेरा यहाँ ये लेख लिखना ही व्यर्थ है और, शायद मैं ही भारतीय संस्कृति और आधुनिकता से अनजान हूँ।
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