"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

इस बार की दिवाली रही ज्यादा ज़हरीली.. :(

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रविवार की दीपावली बडे धूम-धाम से मना लेने के बाद हम लोग आज इस विषय पर चर्चा करते नजर आ रहें हैं कि दिल्ली की हवा में दीपावली पर फोडे पटाखों के कारण जहर घुल गया है। अब किसी त्योहार को मानाने के तौर-तरीके ऐसे तो कम से कम नहीं होने चाहिए कि हम अपने वातावरण का ख्याल रखना ही भूल जायें। लेकिन दीपावली की आड़ में हमने ऐसी मानसिकता तैयार कर ली है कि यदि पटाखे ना फोड़े तो दिवाली मनी मानते ही नहीं। 

अब ऐसी चर्चा करने की जरूरत पडी ही क्यों?
यदि हम लोग कुछ थोडे से भी पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होते तो कहीं भी इस विषय पर चर्चा करने की विशेष जरूरत ना पडती, सब कुछ सामान्य ही रहता। 
पर हम सभी को तो पहले से ही पता था कि दिल्ली की हवा बेहद खतरनाक तरीके से दूषित थी और हम जहरीली हवा में रोजाना सांस ले रहें हैं तो पटाखों के और खतरनाक जहर को भी हवा में हमने मिलने दिया। ये एक दूसरे की हट-होड व कुछ क्षण की मस्ती ने दिल्ली की हवा को पिछले साल के मुकाबले भी ज्यादा जहरीली बना दिया और दिवाली के बाद प्रदूषण स्तर में 14-16 गुना वृद्धि कर दी। हवा की गुणवत्ता पर नज़र रखने के बाद केन्द्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड ने बताया कि इस बार वायु में पार्टिकुलेट मैटर जैसे जहरीले तत्वों की मात्रा सुरक्षित मानकों के मुकाबले दस गुणा से भी ज्यादा बढ़ गयीं। अब इसके चलते लम्बे समय तक सांस लेने और आँखों से सम्बंधित किस तरह की तकलीफें होंगी, ये स्वाभाविक ही है।

प्रदूषण का आलम ऐसा रहा कि सोमवार सुबह धुंध में 100 मीटर देख पाने की दृश्यता मुश्किल सी लग रही थी।
सवाल अब भी कई उठते हैं कि कई दिनों से ट्वीटर, फेसबुक व तमाम सोश्ल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रदूषण कम करने की मुहिम समेत सब योजनायें धरी की धरी रह गई। इसका मतलब यह भी हुआ कि हमें केवल स्टेटस और ट्वीट को ट्रेंड कराना है और थोडे से लाइक्स बटोर लेने हैं। सामाजिक दायित्व तो हमारा कुछ बनता ही नहीं। हम तो मस्त अपना कार्य करेंगे और प्रदूषण को कंट्रोल करने की जिम्मेदारी सरकार पर छोडेंगे। अब हमारी क्या जिम्मेदारी हो सकती है?? हम अब दिवाली भी ना मनाएं??

अब जब ऐसे चिंताजनक विषयों पर ही सामान्य नागरिकों की अलग अलग राय है तो फिर प्रदुषण की चिंता करना एक मजाक के समान समझा जा सकता है। एक शख्स को तो यह तक कहता सुना गया कि "दिवाली मनाई है, कुछ मनाई जैसी लगनी तो चाहिए ना।"

ऐसे त्योहार मनाने, उत्साह का तरीका व दिखावे की होड़ पर्यावरण की फ़िक्र पर हावी हो जाती है। ऑड-इवन जैसे थोड़े समय के प्रयोग भी लोगों की जिद, होड़ के आगे असफल साबित हुए। वो तो चलो गाड़ियों के लिए था परन्तु पटाखों के इस्तेमाल को लेकर भी कोई नीति अपनाने की जरुरत है। क्योंकि दीपों के उजालों व मिठाइयों से ज्यादा खर्चा तो हम पटाखों पर कर देते हैं। जिसके बाद मिला भी तो क्या प्रदूषण और ज़हरीली हवा। अब कोई सरकारी नीतियां बने या ना बने पर यदि हम अपनी संवेदनशीलता, प्रकृति संतुलन की समझ भी खोए बैठे रहे, तो जो हुआ ऐसा ही होगा। नहीं तो इससे भी भयानक होगा भविष्य में। बस दीपावली पर दीप मत जलाइए, पूजा मत करिए, रोशनी मत फैलाईये, मिठाई पर खर्चा मत कीजिये...... करना है तो बस...फोड़ते रहिये पटाखे और लेते रहिये जहरीली हवा में सांस।

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मैं, पीताम्बर शम्भू, आप सभी के समक्ष अपने लेख व विचारों को पेश करते हुए… हाल-फिलहाल के हालातों का ब्यौरा रखने की भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर पसंद आये तो जरूर पढियेगा। . . धन्यवाद…।।

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