"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

क्या गरीब सवर्णों को भी आरक्षण के दायरे में लाया जाना चाहिये?

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दलीलें कुछ भी दी जाती रही हों या विरोध में कितनी ही बातें होती रहीं हों। हम यह भी जानते हैं कि लगभग 50 प्रतिशत या उससे ज्यादा लोग हमेशा से सामाजिक आधार पर आरक्षण का समर्थन नहीं करते। वजह कुछ भी दी जाती रहें, लेकिन आरक्षण को लेकर अपनी सोच का विस्तार करने की जरुरत है

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि देश में सामाजिक सहभागिता को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण की नितांत आवश्यकता है, साथ ही सच ये भी है कि आज तक अधिकांश लोग आरक्षण के वास्तविक उद्देश्यों के बारे में या तो अनजान है या फिर जानने की कोशिश ही नहीं करते। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि लोगों को आरक्षण के ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने में मदद की जाये। इसमें कोई संदेह वाली बात ही नहीं है कि देश में आर्थिक असमानता है और यहाँ गरीबी केवल एक चुनावी मुद्दा ही है। इसलिये ऐसे में गरीबी एवं आर्थिक असमानता को जाति एवं क्षेत्र की सीमाओं में बाँधकर देखना सही नहीं लगता। और हमें इस बात को भी सही ढंग से समझ लेने की जरूरत है कि किसी भी समस्या को ठीक करने का उपाय आरक्षण नहीं हो सकता। समस्या की प्रकृति के आधार पर ही उसका निराकरण किया जाना चाहिये तथा उसको कैसे हल किया जाये, ऐसे उपाय खोजने का प्रयास किया जाना चाहिये।

आजकल जो लोग गरीब सवर्णों को आरक्षण के दायरे में लाने की बात कर रहें हैं उन्हे यह समझना होगा कि आरक्षण कभी भी आर्थिक पिछडेपन का सही उपाय नहीं सिद्ध हो सकता। हमारे यहाँ क्षेत्रीय असमान विकास का भी अभाव है। कोई क्षेत्र बहुत ही विकसित एवं साधन संपन्न है तो किसी क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं तक का अभाव है। ऐसी स्थिति में तो क्षेत्र के आधार पर भी आरक्षण दिया जाने लग जायेगा। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिये। हमें कुछ असमानताओं को दूर करने के अन्य उपाय खोजने ही होंगे। साथ ही आरक्षण दिये जाने के निहितार्थ भाव को भी समझना होगा।

और तो और आरक्षण का उद्देश्य कभी भी गरीबी उन्मूलन नहीं रहा। यदि आरक्षण दिये जाने के वास्तविक सत्य को खोजा जाये तो हमें पता चलता है कि किस तरह से एक ऐतिहासिक गलती को सुधारने का यह एक प्रयास मात्र है। हमारे देश में कई ऐसे तबके व पीढी हैं जो सदियों से शोषित होते आयें हैं। शोषित होने का वह तरीका इतना अमानवीय लगता है कि उसका आज भी जिक्र करना किसी सजा से बदतर होगा। ऐसी स्थिति से उभरकर आये वे लोग व पीढी मुख्यधारा से आज भी अलग थलग ही पडे नजर आते हैं। अत: इस सामाजिक असमानता को दूर करने के लिये आरक्षण दिया गया। और इसमें सामाजिक व शैक्षणिक पिछडेपन को इसका मूलआधार बनाया गया। यदि गौर किया जाये यह क्रूर असमानता आज भी है। हाँ, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि गरीबी एक देशव्यापी समस्या है जिससे हर जाति-वर्ग-धर्म लड़ रहा है। परन्तु इसका समाधान अलग तरीके से होना चाहिए। अगर सही सोच रखें तो देश में आर्थिक विकास को बढ़ावा देना इसका प्रमुख समाधान है। देखा जाये तो वर्तमान में भी सरकार गरीबी रेखा का निर्धारण करती है, गरीब चाहे कोई भी हो किसी भी जाति-वर्ग से हो, जन वितरण प्रणाली के द्वारा सरकार अत्यंत सस्ते मूल्यों पर अनाज मुहैय्या कराती है। हमें चाहिए कि गरीबी रेखा के निर्धारण को और तर्कसंगत एवं व्यावहारिक बनाएं। 

हाँ, और एक बात सवर्ण लोगों और आरक्षित लोगों के मध्य खाई इतनी बड़ी बनाई जा रही है जिससे सरकार अपनी कमियों को छुपाने और केवल पल्ला झाड़ने का ही काम करती है। यदि देखें तो आरक्षित जगहों, सीटों, मंत्रालयों, आफिसों, कार्यालयों में आज भी आरक्षण के रहते हुए भी वहां आरक्षित लोग ही नहीं पहुँच पाते, या फिर पहुँचने नहीं दिए जाते। सवर्ण लोग गरीबी का बहाना बना कर आरक्षण को ख़त्म करने की मांग हर समय उठाते रहते हैं, उन्हें यह जानने की जरुरत है कि वे हर जगह बहुमत में हैं जबकि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति 22.5% का आरक्षण लेकर भी अपने अधिकार को समझ नहीं पाये हैं। 
हाल ही में करायी गयी जनगणना में जातिगत आकडे भी अभी तक उपलब्ध नहीं कराये गए। क्यों वह सब छुपाये गए हैं, क्यों समय पर जारी नहीं कराये गए? समझ सकते हैं। क्या कारण हो सकता है?

अतः स्पष्ट है कि मूल रूप से गरीब सवर्णों को आरक्षण के दायरे में लाना इस समस्या का हल नहीं है। इससे तात्कालिक लाभ जरुर मिल जाये पर दीर्घकालीन हल ये बिलकुल नहीं हो सकता। इसके लिए विशेष रूप से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम और आर्थिक रूप से मदद के ऊपर सोचने की जरुरत है न कि आरक्षण का दायरा बढाने की। 

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