
यह प्रश्न केवल किसी महान व्यक्ति की अनुपस्थिति की कल्पना नहीं है, बल्कि यह भारत की लोकतांत्रिक आत्मा, सामाजिक न्याय, और राष्ट्रीय एकता की जड़ों तक जाता है। यदि डॉ. भीमराव अम्बेडकर न होते, तो शायद भारत वह देश नहीं बन पाता जो आज है — एक ऐसा राष्ट्र जो जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद एकता की मिसाल है।
भारत की अखंडता और संविधान: अम्बेडकर की दूरदर्शिता
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश को एकसूत्र में बांधना आसान नहीं था। पाकिस्तान के उदाहरण को देखें, जहाँ एक कमजोर संघीय ढांचे और अल्पसंख्यकों की अनदेखी के कारण 1971 में बांग्लादेश अलग हो गया। इसके विपरीत, भारत ने अपने संविधान के माध्यम से एकता बनाए रखी — और इसका श्रेय जाता है संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर को।
अम्बेडकर ने भारत के लिए एक ऐसा संविधान तैयार किया जिसमें सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो, और जहाँ केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बना रहे। यह उनका ही चिंतन था कि छोटे राज्य भी अपने को शक्तिशाली और सुरक्षित महसूस करें, न कि बड़े राज्यों के दबाव में।
डॉ. अम्बेडकर और शिक्षा "शेरनी का दूध"
अम्बेडकर की शिक्षा ने उन्हें वैश्विक दृष्टिकोण दिया। 1913 में जब वे कोलंबिया विश्वविद्यालय (अमेरिका) गए, तो उनकी अंग्रेज़ी ने वहाँ के प्राध्यापकों और छात्रों को प्रभावित किया। प्रोफेसर जॉन ड्यूई जैसे विचारकों से उन्होंने गहन शिक्षा ली। यही शिक्षा और अंग्रेज़ी भाषा, जो उस समय बहुजन समाज से दूर थी, अम्बेडकर के लिए सामाजिक न्याय का औजार बनी।
उन्होंने दलितों से आह्वान किया — "शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पिएगा वह दहाड़ेगा।" आज यह कथन न केवल प्रतीकात्मक है, बल्कि व्यवहारिक भी। जो दलित पहले शोषित और हाशिए पर थे, वे आज विश्व के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पहुँच रहे हैं।
आरक्षण की मांग और अंग्रेज़ी से दूरी
आज जाट, गुर्जर, पटेल और कापू जैसी जातियाँ भी आरक्षण की मांग कर रही हैं। इनमें से अधिकतर शूद्र मूल की जातियाँ हैं और सामाजिक रूप से पिछड़ी रही हैं। लेकिन क्या इन्होंने अंग्रेज़ी को उतना अपनाया है जितना अम्बेडकर ने दलितों को प्रेरित किया था?
ओबीसी समाज के बड़े नेता राम मनोहर लोहिया ने "अंग्रेज़ी हटाओ" का नारा दिया, जिसका प्रभाव यह हुआ कि ओबीसी वर्गों में अंग्रेज़ी के प्रति एक दूरी बन गई। यह दूरी आज उनके सामाजिक और आर्थिक विकास में बाधा बन रही है।
अंग्रेज़ी का वर्तमान और भविष्य
आज अंग्रेज़ी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि तकनीक, व्यापार, उच्च शिक्षा और प्रशासन की भाषा बन चुकी है। एक वैश्विक रिपोर्ट बताती है कि 2050 तक जो व्यक्ति अंग्रेज़ी नहीं जानता, वह डिजिटल युग में गूंगे-बहरे जैसा होगा। ऐसे में यदि कोई समाज आरक्षण का लाभ उठाना चाहता है, तो उसे अम्बेडकर के रास्ते — अर्थात् शिक्षा और अंग्रेज़ी — को अपनाना ही होगा।
जो जातियाँ अंग्रेज़ी से दूर हैं, वे अवसरों से भी दूर हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अंग्रेज़ी को विरोध के बजाय अवसर के रूप में देखें।
निष्कर्ष: अम्बेडकर नहीं होते तो...
अगर भारत में डॉ. भीमराव अम्बेडकर नहीं होते, तो शायद हमें वह संविधान नहीं मिलता जो आज हमें एकजुट रखे हुए है। शायद समाज का वंचित वर्ग आज भी शिक्षा और अधिकारों से पूरी तरह वंचित होता। सबसे बड़ी बात — अम्बेडकर ने हमें यह सिखाया कि शिक्षा ही वह शक्ति है जो सामाजिक व्यवस्था को बदल सकती है।
जो बाबा साहेब अम्बेडकर की सोच को अपनाएगा — चाहे वह दलित हो या ओबीसी, या कोई भी वर्ग — वही सामाजिक न्याय, अवसर और आत्मगौरव की ओर अग्रसर होगा।