क्या होता यदि भारत में डॉ. भीमराव आंबेडकर नहीं होते? इसका उत्तर जानने के लिए पाकिस्तान की कहानी देख सकते हैं। पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से, जिसे अब बांग्लादेश कहा जाता है, ने 1971 में विद्रोह कर अलग देश बना लिया। इसका कारण पाकिस्तान के संविधान में वह गहराई और संघीय ढांचा नहीं होना था। इसके विपरीत, भारत की कहानी देखें। एक अरब 25 करोड़ की आबादी वाला देश, जिसमें 29 राज्य और सात केंद्रशासित प्रदेश हैं, एक मजबूत संघीय ढांचे के साथ आगे बढ़ रहा है। जितना बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहुजातीय भारत है, उतना दुनिया का कोई अन्य देश नहीं। अमेरिका में जरूर 50 राज्य हैं, लेकिन सभी अंग्रेजीभाषी हैं।
भारत की एकता और अखंडता को हमारे संविधान ने सुरक्षित रखा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा संविधान दुनिया में सबसे उत्कृष्ट है। भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. आंबेडकर की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि भारत की एकता और अखंडता कैसे बनी रहे। उन्हें इसका समाधान संघीय ढांचे में मिला। एक ऐसा संघीय ढांचा, जिसमें छोटे राज्य भी अपने को सुरक्षित महसूस कर सकें और बड़े राज्यों से भयभीत न हों। बाबा साहेब इस कार्य में सफल रहे।
डॉ. आंबेडकर ने भारत को एक श्रेष्ठ संविधान देने के लिए विश्व के कुछ श्रेष्ठ संविधानों का अध्ययन किया और अपनी विद्वता का इस्तेमाल कर एक ऐसा संविधान बनाया, जो कभी असफल नहीं हो सकता। कल्पना करें, अगर डॉ. आंबेडकर अंग्रेजी न जानते तो क्या होता? उच्च शिक्षा के लिए 1913 में वे न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय पहुंचे। वहाँ उन्होंने अपने सहपाठियों और प्रफेसरों को अपनी इंग्लिश से प्रभावित किया। उनके प्रफेसर्स, विशेषकर प्रोफेसर जॉन डिवे, जेम्स शॉटवेल और सेलिमेन, उनकी अंग्रेजी से हैरान थे।
आंबेडकर की सफलता में अंग्रेजी भाषा का महत्वपूर्ण योगदान था। इसलिए उन्होंने इंग्लिश को 'शेरनी का दूध' बताया और दलितों से इंग्लिश अपनाने का आह्वान किया। वे इंग्लिश को राष्ट्रीय लिंक लैंग्वेज बनाने की मांग करने वाले पहले नेता थे। भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने में संविधान के बाद सबसे बड़ी भूमिका इंग्लिश की और इंग्लिश बोलने वालों की है। दलित समाज पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है। किसी भी अमेरिकी विश्वविद्यालय में जाइए, वहाँ आपको दलित छात्र मिल जाएंगे। कई दलित अधिकारी अपनी जीवनभर की कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च कर अपने बच्चों की पढ़ाई विदेशों में करा रहे हैं।
हालांकि, क्या जाट, गुर्जर, पटेल और कापू जैसी जातियों में भी इंग्लिश को वही महत्व प्राप्त है? ये जातियाँ आरक्षण की मांग कर रही हैं। उत्तर भारत के जाट और गुर्जर, गुजरात के पटेल और आंध्र प्रदेश के कापू मूलतः शूद्र हैं और इनकी सामाजिक चेतना और व्यवसाय अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के समान है। इन जातियों का भी कभी शोषण हुआ है, लेकिन इंग्लिश के प्रति इनका रुख अलग है।
ओबीसी समाज के बड़े नेता राम मनोहर लोहिया ने 'अंग्रेजी हटाओ' आंदोलन चलाया था, जिससे ओबीसी परिवारों में इंग्लिश के प्रति अनादर पैदा हुआ। इसका नुकसान यह समाज आज तक भुगत रहा है।
आज के वैश्विक दौर में, इंग्लिश एक आवश्यक भाषा है। व्यापार, मैन्युफैक्चरिंग, शोध और प्रशासन की भाषा इंग्लिश ही है। एक अध्ययन से पता चलता है कि 2050 तक इंग्लिश न जानने वाला व्यक्ति गूंगा-बहरा जैसा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में इंग्लिश जाने बिना जाट या ओबीसी समाज आरक्षण का क्या उपयोग कर पाएगा?
एक बेहतर भारत के लिए जरूरी है कि सभी भारतीय इंग्लिश पढ़ने-पढ़ाने का संकल्प लें। विशेष रूप से, आरक्षण का लाभ ले रही जातियों को इंग्लिश को वैसे ही अपनाना चाहिए जैसे दलित जातियां अपना रही हैं। जो जातियाँ इंग्लिश को नहीं अपना रही हैं, उन्हें आरक्षण छोड़ देना चाहिए। जो जातियाँ आरक्षण की मांग कर रही हैं, लेकिन इंग्लिश अपनाने की ओर नहीं बढ़ रहीं, उन्हें अपनी मांग छोड़ देनी चाहिए। जो भी डॉ. आंबेडकर की जुबान अपनाएगा, वह आंबेडकर की तरह ही चमकता रहेगा।
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