"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

प्रकृति अत्यंत सरल है।

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प्रकृति अत्यंत सरल है। इसकी समस्त क्रियाएं बड़ी सरलता के साथ होती हैं। सूर्य का उदय होना, तारों का टिमटिमाना, नदियों का निरंतर बहना, हवा का चलना समय पर हो रहा है। वृक्ष फलते-फूलते हैं, रात के बाद दिन आता है, पर्वत-चट्टानें स्थिर हैं।
 प्रकृति जटिलताओं का उद्गम-स्त्रोत नहीं है, उन्हें वह निर्मित भी नहीं करती। प्रकृति की क्रियाएं क्यों हो रही हैं या फिर क्या होना चाहिए, जैसे प्रश्नों से जटिलता पैदा होती है।
 प्रकृति में सब कुछ स्वयं ही होता है। प्रकृति की तरह जो चीज सरल रहती है, वही सत्य है। ऊपर से यह सहज जान पड़ता है, पर इसका अभ्यास करने पर यह इतनी सरल नहीं रहती। यही जीवन के साथ भी है। सरल रहने तक मानव जीवन सम्यक अर्थो में वास्तविक जीवन बना रहता है। यही हमारा जीवन जीना होता है। इससे पृथक होते ही यह जीवन कष्टमय बन जाता है। पद और ज्ञान का दंभ जीवन को जटिलतम बनाता है। जीवन के न सुलझने वाले गणित को सुलझाने के अनावश्यक कार्य में इतने अधिक उलझ जाते हैं कि अंत में मृत्यु ही इनके उलझाव को सुलझाती है। सहज और सरल जीवन के माध्यम से प्रयास के बगैर मंजिल मिलती है। सहजता में जीवन असाधारण होता है।
 सत्य भी सहज है। सत्य बोलना कठिन नहीं है। जो वास्तविकता है उसे ही कहना है। सत्य में जोड़ना-घटाना और गुणा-भाग नहीं करना पड़ता। झूठ बोलना इसके ठीक विपरीत है। जो नहीं है, वही कहना है। जल को हवा सिद्ध करने के लिए प्रपंच की सृष्टि करनी पड़ती है। वास्तविकता से दूर जाना पड़ता है। सत्य का यथार्थ से संबंध है। प्रेम की भूख स्वीकार करने पर उसे मिटाने वाले सरलता से मिल जाते हैं। संकोच करने पर मायावी-दिखावे के कारण अवसर निकल जाता है। संबंध की दीर्घता में सत्य सरल सेतु है। सत्य को कभी स्मरण नहीं रखना पड़ता। स्वयं स्मृति में रहता है। झूठ को सदा स्मृति पटल पर रखना होता है। झूठ को जितनी बार दोहराते हैं उतनी बार उसका अर्थ बदलता जाता है। झूठ जटिलताएं उत्पन्न करता है, जो मानसिक तनाव का कारण बनकर सरलता नष्ट करती है। सरलता के बगैर सत्य का सानिध्य नहीं मिलता। जटिलता छोड़ने पर आनंद धारा फूट पड़ती है।

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