आख़िरकार, १९९३ के बम धमकों के पकडे गए मुख्य आरोपी को न्यायसंगत फांसी तो ३० जुलाई को सुबह दे ही दी गयी। लेकिन बहस अभी जारी है। यकीन मानिये, याकूब फांसी का हकदारी तो था ही क्योंकि उसने बम धमाकों में अपने भाई टाइगर मेमन का मुख्य रूप से साथ दिया। बहस तो इस बात की है कि ये बाकी के आरोपी कब तक पकड़ में आएंगे। पकड़ में आएंगे कि नहीं आएंगे ये तो वक्त बताएगा।
फांसी की फांस
याकूब की फांसी का राजनीतिकरण हुआ, ऐसा खुद याकूब फांसी से पहले कह के जा चुका। ऐसा वो कहे भी क्यों ना, उससे पहले फांसी की सजा पाये दोषी अभी भी जेल में बैठे रोटियां तोड़ रहे है। राजीव गांधी के हत्यारों को सजा माफ़ हुई, गोधरा के दोषियों को आप बा-इज्जत बरी ही समझो। देखा जाए तो मौतें इनमें भी हुई, दहशत इनमे भी फ़ैली। पिछले दस सालों में चार ही फांसी हुई जिनमे कसाब, अफजल गुरु तो सबको याद ही होंगे। इनपर हुआ आंतरिक फैसला सिर्फ जेल और न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया तक ही सीमित था। लेकिन याकूब के मामले में परिवार और मीडिया तक भी खबर लीक हुई, जिसके चलते पल पल की खबर सभी के पास रहने लगी। यही नहीं पीछे कई आतंकियों के फांसी के बाद, शव का अंतिम संस्कार जेल में ही धार्मिक रीती रिवाजों के साथ किया गया। और याकूब के मामले में शव को परिवार वालों को सौंपा गया(पुलिस की देख रेख में)।
अब कहा तो यही जा सकता है की हमारी न्यायिक प्रक्रिया में थोड़ा सुधार या बदलाव की जरुरत है, जिसके चलते ऐसा दोबारा होने न दिया जाये। क्योंकि न्यायालय का ही अंतिम फैसला होना चाहिए और उसकी अवमाना करने पर करवाई भी की जाने की जरुरत है, लेकिन लोकतंत्र है सबको अपना पक्ष रखने का पूरा अधिकार है।
और इसी बीच कांग्रेस के नेता शशि थरूर का भी बयान आता है जिसमें वो कैपिटल पनिशमेंट याने, फांसी की सजा को ही गलत मानते है। उन्होंने कहा कि ये फांसी की सजा से देश और सरकार दोनों कानूनी तौर पर हत्यारा बन जाता है, जिसको वे सही नहीं मानते। देखा जाये तो ये मुद्दा बरसों पहले से कई बार उठाया जा चुका है कि मौत की सजा का प्रावधान होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए। आगे आने वाले दिनों में या हो सके तो वर्षों में इस पर गहनता से विचार तो जरूर किया जायेगा।
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