"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

कौन हल्का है, कौन भारी है, ये तो तराजू की जिम्मेदारी है, पर ऐसी तराजू है कहाँ

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नापना तौलना सिर्फ वस्तुओं या चीजों का ही नहीं होता, बल्कि विचारों लेखों का भी होता है। आज का दौर चल पड़ा है, तुलना, समीक्षा और मूल्यांकन का। तो किसी कृति व रचियता के गुण एवं दोष कैसे देखें जायेंगे? ये एक विषय उभरकर आता है जिसमें गहन अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है। 

सामान्यतौर पर देखा जाता है कि जो मूल्यांकन करता है वह किसी बहाव में भीगा होता है। ऐसा नहीं होना चाहिये अपितु मूल्यांकन का भाव सदैव निष्पक्ष होना चाहिये। जिसमें साफ-साफ उचित ईमानदारी, सही आंकलन और संतुलन का नजर आना भी जरूरी है। मतलब साफ है कि समीक्षा न्यायसंगत, संतुलित, गुण-दोष पर आधारित और इस या उस पक्ष में झुकी नहीं होनी चाहिये।

अब मूल्यांकन व समीक्षा के संदर्भ में एक बात यह भी निकलकर सामने आती है कि यदि समीक्षक ही अपने तय इरादे के अनुसार ही और या यूँ कहे कि समीक्षक अपने तयशुदा ढ़ांचे के अनुरूप ही अपना मूल्यांकन करे तो लेखक द्वारा व्यक्त किये गये अर्थ की बजाये समीक्षक अपने ही अर्थ ढूँढने के प्रयास करेगा तो समीक्षा अच्छी व औचित्यपूर्ण कैसे होगी? समीक्षक का मतलब कुछ भी आंकलन कर देने का नहीं है। मनमर्जी को मूल्यांकन नहीं कहा जा सकता।यहाँ तक कि साहित्य के क्षेत्र में भी प्राय ऐसा ही देखने को मिल जाता है, कुछ समीक्षक रचना को इतना तोड़ मरोडकर सामने रख देते हैं कि रचना ही बेजान हो जाती है। श्रेष्ठ मूल्यांकन तो तब है जब रचनाकार अपना ही मूल्यांकन ईमानदारी के साथ करे लेकिन वह भी संपन्न समीक्षा नहीं कहलाई जा सकती बल्कि वास्तविकता में बेहतरीन समीक्षा तो वो है जिसमें उन विषयों पर चर्चा हो जिसे पाठकों ने नजरअंदाज किया हो। समीक्षा की विशेषतायें सटीक, संतुलित, गुण-दोषों के साथ और उन खूबियों को सामने लाना जो पाठकों से छिपी रह गई हो सकती है। लेकिन यह कोई बात नहीं, असल बात तो ये है कि समीक्षा का कोई पैमाना नहीं।

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मैं, पीताम्बर शम्भू, आप सभी के समक्ष अपने लेख व विचारों को पेश करते हुए… हाल-फिलहाल के हालातों का ब्यौरा रखने की भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर पसंद आये तो जरूर पढियेगा। . . धन्यवाद…।।

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